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पर्यावरण संरक्षण एवं जन चेतना

‘नमो वृक्षेभ्यः।’ ‘वनानां पतये नमः।’ ‘औषधीनां पतये नमः।’ ‘वृक्षाणां पतये नमः।’ ‘अरण्यानां पतये नमः।’ प्राचीन काल से ही पर्यावरण और मनुष्य के बीच बहुत गहरा संबंध है। ऋषि मुनियों की साधना का केंद्र वनभूमि ही रहा है। गुरुकुल की प्राचीन शिक्षा प्रणाली भी प्रकृति के सानिध्य में ही फलीभूत हुई है। वनभूमि में वाई-फाई नहीं है, लेकिन मैं यकीन के साथ कह रही हूं कि जीवन का बेहतर कनेक्शन यही मिलेगा। मनुष्य के लिए धरती उसके घर का आंगन है, आसमान छत, सागर-नदी पानी के घडे है और पेड़-पौधे आहार के साधन हैं। इतना ही नहीं, मनुष्य के लिए पर्यावरण से अच्छा गुरु नहीं है। आज तक मनुष्य ने जो कुछ हासिल किया वह सब पर्यावरण से सीखकर ही किया है। न्यूटन जैसे महान वैज्ञानिक को गुरुत्वाकर्षण समेत कई पाठ प्रकृति ने ही तो सिखाए हैं। तो वहीं कवियों ने प्रकृति के सानिध्य में रहकर एक से बढ़कर एक कविताएं लिखीं। पतझड़ का मतलब पेड़ का अंत नहीं है। इस पाठ को जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में आत्मसात किया उसे असफलता से कभी डर नहीं लगा। ऐसे व्यक्ति अपनी हर असफलता के बाद विचलित हुए बगैर नए सिरे से सफलता पाने की कोशिश करते हैं। वे तब तक ऐसा करते रहते हैं जब तक सफलता उन्हें मिल नहीं जाती। इसी तरह फलों से लदे, मगर नीचे की ओर झुके पेड़ हमें सफलता और प्रसिद्धि मिलने या संपन्न होने के बावजूद विनम्र और शालीन बने रहना सिखाते हैं। ‘बंकिम चंद्र चटर्जी’ की “सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम्” वाली धरती की कल्पना सचमुच ही बड़ी मनोहारी है। वह जीवनदायिनी है, पावन है और बिना किसी भी भेदभाव के सब पर अपना स्नेह लुटाती है, लेकिन विडंबना यह है कि हम प्रकृति की इस कृतज्ञता के बदले उसके प्रति और अधिक क्रूर व्यवहार कर रहे हैं। ‘मत्स्यपुराण’ में एक वृक्ष को सौ पुत्रों के समान बताया गया है। इसी कारण हमारे यहां वृक्ष पूजने की सनातन परंपरा रही है। प्रकृति की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह अपनी चीजों का उपभोग स्वयं नहीं करती। जैसे-नदी अपना जल स्वयं नहीं पीती, पेड़ अपने फल खुद नहीं खाते, फूल अपनी खुशबू पूरे वातावरण में फैला देते हैं। मतलब प्रकृति किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात नहीं करती, लेकिन मनुष्य जब प्रकृति से अनावश्यक खिलवाड़ करता है तब उसे गुस्सा आता है। जिसे वह समय-समय पर सूखा, बाढ़, सैलाब, तूफान के रूप में व्यक्त करते हुए मनुष्य को सचेत करती है। प्रकृति तो हमेशा ही मेरी सुंदर मां जैसी है,गुलाबी सुबह से माथा चूम कर हंसते हुए उठाती है,गर्म दोपहर में ऊर्जा भर के दिन खुशहाल बनाती है,रात की चादर में सितारे जड़कर मीठी नींद सुलाती है,प्रकृति तो हमेशा ही मेरी सुंदर मां जैसी है। ‘भगवतगीता’ में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को 'ऋतुस्वरुप', 'वृक्षस्वरुप', 'नदीस्वरुप' एवं 'पर्वतस्वरुप' बताते हुए मूलतः धर्म के माध्यम से 'पर्यावरण' के महत्व को ही बताया है। सच तो यह है कि जन्म से लेकर मरण तक मानव का जीवन 'पर्यावरण' से गहरे रूप में जुड़ा रहता है। लोकगीतों,लोककलाओं में भी वनस्पतियों ,जीवों, वन्य जीवन,पर्यावरण का ज़िक्र मिलता है। इस दुनिया में प्रकृति सा कोई सुंदर नहीं। जहां प्रकृति खिलखिलाती है वहां लोग प्रसन्नता से जीवन बिताते हैं।’महाकवि कालिदास’ ने 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' के मंगलाचरण में कहा है कि 'प्रत्यक्षाभि: प्रपन्न स्तनुभिरवस्तुवस्ता भिरष्टाभिरीश' अर्थात् महाकवि कालिदास ने जल, वायु, अग्नि आदि पर्यावरण के तत्त्वों को ईश्वर का प्रत्यक्ष स्वरुप कहकर अभिनंदित किया है। सदियों से जीवन और पर्यावरण की परस्पर निर्भरता भारतीय चिंतन परंपरा की एक खास पहचान रही है, परन्तु आज की कड़वी सच्चाई यह है कि हम पर्यावरण से जीवन का अमृत रस तो लेते हैं, लेकिन बदले में उसे विष देते हैं, उसमें जहर घोल देते हैं। हरी भरी वसुंधरा पर,नीला नीला ये गगन, के जिस पर बादलों की पालकी,उड़ा रहा पवन I दिशाएं देखो रंग भरी, दिशाएं देखो रंग भरी,चमक रहीं उमंग भरी I ये किसने फूल फूल से किया श्रृंगार है ? ये कौन चित्रकार है ? ये कौन चित्रकार है ? तपस्वियों-सी हैं अटल,ये पर्वतों की चोटियाँ, ये बर्फ़ की घुमावदार,घेरदार घाटियाँ, ध्वजा-से ये खड़े हुए, ध्वजा-से ये खड़े हुए हैं,वृक्ष देवदार के, गलीचे ये गुलाब के,बगीचे ये बहार के I ये किस कवि की कल्पना, ये किस कवि की कल्पना का चमत्कार है, ये कौन चित्रकार है,ये कौन चित्रकार है ?